


एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है
अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है
नशे में डूबे कोई, कोई जिए, कोई मरे
तीर क्या क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है
बंद आँखों को नज़र आती है जाग उठती हैं
रौशनी एसी हर आवाज़-ए-अज़ाँ छोड़ती है
एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है
खुद भी खो जाती है मिट जाती है,मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है
मरने वालों को भी मिलते नहीं मरने वाले
मौत ले जा के खुदा जाने कहाँ छोड़ती है
ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं।
इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं,
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं|
ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।
सच घटे या बड़े तो सच न रहे,
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं।
ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।
जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता-पता ही नहीं।
धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं।
कैसे अवतार कैसे पैग़म्बर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं।
उसका मिल जाना क्या, न मिलना क्या
ख्वाब-दर-ख्वाब कुछ मज़ा ही नहीं।
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में,
आईना झूठ बोलता ही नहीं।
अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
‘नूर’ संसार से गया ही नहीं।
वो लब कि जैसे साग़रे-सहबा दिखाई दे
जुंबिश जो हो तो जाम छलकता दिखाई दे
उस तश्नालब की नींद न टूटे, खु़दा करे
जिस तश्नालब को ख़्वाब में दरिया दिखाई दे
कहने को उस निगाह के मारे हुए हैं सब
कोई तो उस निगाह का मारा दिखाई दे
दरिया में यूँ तो होते हैं क़तरे-ही-क़तरे सब
क़तरा वही है जिसमें कि दरिया दिखाई दे
खाये न जागने की क़सम वो तो क्या करे
जिसको हर एक ख़्वाब अधूरा दिखाई दे
क्यों आइना कहें उसे, पत्थर न क्यों कहें
जिस आइने में अक्स न उनका दिखाई दे
क्या हुस्न है, जमाल है, क्या रंग-रूप है
वो भीड़ में भी जाये तो तनहा दिखाई दे
फिरता हूँ शहरों-शहरों समेटे हर एक याद
अपना दिखाई दे न पराया दिखाई दे
पूछूँ कि मेरे बाद हुआ उनका हाल क्या
कोई जो उस जनम का शनासा दिखाई दे
कैसी अजीब शर्त है दीदार के लिये
आँखें जो बंद हों तो वो जलवा दिखाई दे
ऎ ‘नूर’ यूँ ही तर्के-मुहब्बत में क्या मज़ा
छोड़ा है जिसको वो भी तो तनहा दिखाई दे